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Thursday, December 30, 2010

सितारा मेहनताना और प्लास्टिक के फूल

News4Nation 11:20 PM

ना ना पाटेकर की फिल्म ‘हॉर्न ओके प्लीज’ का प्रदर्शन विगत वर्ष तीन बार घोषित हुआ, परंतु प्रदर्शन नहीं हुआ। बताया जाता है कि नए निर्माता से नाना ने इतना अधिक पारिश्रमिक लिया है कि इसकी लागत वसूल ही नहीं हो सकती। उन दिनों सभी कलाकार बाजार में तेजी के कारण अपने बाजार मूल्य से कम से कम दस गुना अधिक पैसा मांग रहे थे और कारपोरेट कंपनियों में फिल्में खरीदने की होड़ लगी हुई थी।

इस नकली समृद्धि का सपना टूटते ही कारपोरेट कंपनियां यथार्थ के धरातल पर लौट आईं। मंदी के दौर में सभी क्षेत्रों ने किफायत का मूल्य समझा, परंतु सितारों के अहंकार ने उन्हें सच्चई से रूबरू नहीं होने दिया। ‘मुन्नाभाई’ श्रंखला ने अरशद वारसी को चने के झाड़ पर चढ़ा दिया और उन्होंने आसमानी सुल्तानी पैसे मांगना शुरू कर दिए। उनकी कोई फिल्म सफल नहीं हुई। दरअसल वह सफलता अरशद वारसी की नहीं, वरन राजकुमार हीरानी की थी।

सितारों की दिमागी गुफाओं में बढ़ी हुई कीमतें उल्टी चीलों की तरह हमेशा के लिए टंग जाती हैं और वे वक्त के साथ नहीं बदलते। सुना है कि नाना पाटेकर ने अपने पुराने मित्र प्रकाश झा से भी शिकायत की कि नए लड़के रणबीर कपूर से कम उन्हें कैसे दिया जा सकता है, जिसे आए हुए जुम्मा-जुम्मा आठ दिन ही हुए हैं।

पिछले दिनों रिलीज रणबीर कपूर की फिल्म ‘अजब प्रेम की गजब कहानी’ ने इतना व्यवसाय किया कि नाना की तमाम फिल्मों की आय भी उसके बराबर नहीं है। यह भी सुना है कि नाना पाटेकर ने बोनी कपूर की निर्माणाधीन फिल्म ‘इट्स माय लाइफ’ की डबिंग भी पैसे के कारण नहीं की है। ऐसा रवैया सिर्फ नाना पाटेकर या अरशद वारसी का नहीं है। अनेक कलाकार सबके सहयोग से अर्जित सफलता को निजी सफलता मानकर ऊंचा मेहनताना मांगने लगते हैं।

इरफान खान अच्छे संवेदनशील कलाकार हैं, परंतु उनके नाम से एक भी अतिरिक्त टिकट नहीं बिकता। अखबारों में अपने अभिनय की प्रशंसा को बाजार मूल्य समझते हुए वे गैरव्यावहारिक मेहनताना लेना शुरू करते हैं, परंतु फिल्म के पिटने पर घटाते नहीं हैं।

मनके की माला में एक दाना ऐसा होता है, जिसे घुमाते हैं, परंतु गिनती में शुमार नहीं करते। ठीक इसी तरह सितारे अपने बाजार मूल्य के मामले में अपनी असफल फिल्म को मनके की माला के उसी दाने की तरह लेते हैं, जो गिनती में शुमार नहीं होता। सितारे अपना अक्स यथार्थ के आईने में नहीं देखते, अपने गिर्द चमचों की आंखों में देखते हैं।

कुछ निर्माता हैं जो पूंजी निवेशक के धन से अव्यावहारिक मुआवजे देकर भी फिल्म बनाना चाहते हैं, क्योंकि निर्माण के दरमियान वह अपना घर भर लेते हैं। बारात या तो पूंजी निवेशक के घर उतरेगी या वितरण करने वाले कारपोरेट के आंगन में बैठेगी, गोयाकि सब टोपियां घुमा रहे हैं। फिल्म के लिए फिल्म थोड़े से लोग बना रहे हैं। यह व्यवसाय निहायत गैरव्यावहारिक तौर-तरीकों पर चल रहा है।

सभी क्षेत्रों में सफल लोगों के व्यवहार और विचार शैली में परिवर्तन आता है, परंतु फिल्म उद्योग में उनके ग्लैमर और मीडियोन्मुखी होने के कारण आमूलचूल बदलाव आता है। शायद इस उद्योग में सरल और स्वाभाविक होना बहुत नुकसान दे सकता है। फिल्म यूनिट पहाड़ों पर अपने साथ प्लास्टिक के फूल ले जाती है और मनपसंद जगह पर फूल हों, तो भी प्लास्टिक के फूल लगाती है। यही रवैया जीवन में भी अपनाया जाता है।

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