1973 में आई फ़िल्म 'ज़ंजीर' से मेरी 'एंग्री यंग मैन' वाली छवि बनी लेकिन उससे काफ़ी पहले मैंने हृषिकेश मुखर्जी के साथ किया था. लेकिन मैंने कभी भी छवि को ध्यान में रखकर काम नहीं किया, मैं प्रकाश मेहरा, मनमोहन देसाई के साथ काम कर चुकने के बाद भी हृषिदा के साथ लगातार काम करता रहा. हृषिदा मेरे और मेरी पत्नी जया के लिए 'फ़ादर फ़िगर' थे, उनके फ़िल्म बनाने का अंदाज़ बिल्कुल अलग था और वे कभी भी क्वालिटी या कथानक से समझौता नहीं करते थे. वे कभी किसी लीक पर नहीं चले उन्होंने अपना रास्ता ख़ुद तैयार किया जो न तो बहुत व्यावसायिक था और न ही बहुत कला प्रधान.
मुझे यह स्वीकार करना होगा कि अब तक मैंने जितनी भी दिलचस्प भूमिकाएँ की हैं सब उन्हीं की फ़िल्मों में. 'आनंद', 'मिली', 'चुपके-चुपके', 'बेमिसाल', 'नमक हराम' और 'जुर्माना'. ये सब के सब किरदार बेहतरीन तरीक़े से रचे गए थे और हृषिदा की फ़िल्मों में काम करने पर अभिनय करने का पूरा अवसर मिलता था. फ़िल्म निर्माण के मामले में उनकी जानकारी इतनी गहरी थी कि हम अपने आप को पूरी तरह उनके हवाले कर देते थे. हमने कभी स्क्रिप्ट नहीं सुनी, कभी नहीं पूछा कि कहानी क्या है, हम सीधे सेट पर पहुँच जाते थे. वे हमें बताते थे कि कहाँ खड़ा होना है, क्या बोलना है, कैसे बोलना है, वे सबको अच्छी तरह निर्देश देते थे. उनकी फ़िल्मों में आप जो हमारा काम देखते हैं उनमें से कुछ भी हमारा नहीं है, सब कुछ हृषिदा का है. अनूठे निर्देशक मिली जैसे जटिल चरित्र के मामले में भी वे एक वाक्य में बता देते थे और उसके बाद जब शूटिंग शुरू होती थी तो कलाकारों को निर्देश देते थे. मैं ख़ुद देख सकता था कि मेरा चरित्र किस तरह से विकसित हो रहा है, मुझे बहुत अच्छा लगता था कि मैंने अपने आप को एक उस्ताद के हवाले कर दिया है. किसी को कोई चिंता करने की ज़रूरत नहीं होती थी सब जानते थे कि हृषिदा उन्हें सही साँचे में ढाल देंगे.
वे एक बेहतरीन एडिटर थे, वे एक दृश्य का फ़िल्मांकन करते थे तो किसी को तब तक कुछ पता नहीं चलता था जब तक कि उसका संपादन न हो जाए. संपादन के बाद दृश्य को देखकर समझ में आता था कि उन्होंने उस दृश्य की कितनी बेहतरीन कल्पना की थी. वे फ़िल्म का अंतिम दृश्य सबसे पहले फ़िल्मा सकते थे, उसके बाद बीच के दृश्य और अंत में शुरूआत की शूटिंग, लेकिन जब फ़िल्म एडिट होकर तैयार होती तो पता चलता कि वे कितने प्रतिभाशाली थे. वे प्रतिभा को पहचानते थे, उसे ललकारते थे, उसका मार्गदर्शन करते थे, हम सब बस उनका अनुसरण करते थे. उनके पात्र और स्थितियाँ सच के बहुत क़रीब होती थीं और कलाकार को पूरा अवसर मिलता था अभिनय कला दिखाने का. उनकी फ़िल्में बहुत बारीक होती थीं और आगे चलकर कई दूसरे निर्देशकों ने उनका रास्ता अपनाया. उनकी फ़िल्मों में से किसी एक चरित्र को बेहतरीन बता पाना बहुत कठिन काम है, 'आनंद', 'मिली' और 'अभिमान' के चरित्र मुझे विशेष तौर पर प्रिय हैं. ये तीनों फ़िल्में सिने-निर्माण की दृष्टि से बेहद आनंददायक थीं. मैंने अगर किसी एक निर्देशक के साथ सबसे अधिक फ़िल्मों में काम किया तो वो हृषिदा ही थे. कुछ लोग ग़लत समझते हैं कि मैंने प्रकाश मेहरा या मनमोहन देसाई की फ़िल्मों में अधिक काम किया है. यह कहना ग़लत होगा कि वे जिस तरह फ़िल्में बनाते थे वे अब नहीं चलेंगी, मैं पक्के तौर पर जानता हूँ कि अगर हृषिदा फ़िल्म बनाते तो अपने ही ढंग की फ़िल्में बनाते और उन्हें लोग देखते और सराहते. लता खूबचंदानी से बातचीत पर आधारित |
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