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Saturday, January 1, 2011

बहुत हुआ, अब भोजपुरी सिनेमा को बदलना ही होगा!

News4Nation 12:29 AM

♦ नितिन चंद्र

हम इन दिनों भोजपुरी सिनेमा की दुनिया खंगालने की कोशिश कर रहे हैं। आलोक रंजन ने पहली फिल्‍म की कहानी बतायी, नितिन आने वाले वक्‍त की तस्‍वीर साफ कर रहे हैं। वे खुद फिल्‍मकार हैं और भोजपुरी सिनेमा की नयी भाषा को लेकर सजग हैं। उन्‍हें दुख है कि भोजपुरी सिनेमा का मौजूदा परिदृश्‍य भोजपुरी समाज की मिट्टी खराब कर रहा है। उनका गुस्‍सा रचनात्‍मक है और हम उनकी इस बेचैनी में खुद को शामिल करते हैं : मॉडरेटर
भोजपुरी सिनेमा बनाने वालों द्वारा भोजपुरी भाषा और संस्‍कृति का बाजारीकरण
(सिर्फ वयस्‍कों के लिए)
Disclaimer
ये लेख सिर्फ उन लोगों के लिए है, जो सिनेमा को एक कला की तरह भी देखते हैं और भोजपुरी सिनेमा में पसरी हुई गंदगी के प्रति चिंतित हैं, या नहीं चिंतित हैं…
Your life begins to end the day you become silent about things that matter. 
Martin Luther King Jr.

ई बार जब आप पटना के गांधी मैदान, बांस घाट, रेलवे स्टेशन या मुंबई के अंधेरी, दादर, बांद्रा या दिल्ली के लाजपत नगर, कनाट सर्कल की तरफ से गुजरेंगे तो आपको बड़े भद्दे से, भड़कीले रंगों में, अजीब से चहरों और नामों वाली फिल्‍मों के पोस्टर दिखेंगे। ये हैं भोजपुरी, आपकी भाषा की फिल्मों के पोस्टर्स। शायद आपका आभिजात्य आग्रह, शिक्षा और पारिवारिक पृष्‍ठभूमि ऐसे पोस्टर्स की तरफ आपका ध्‍यान जाने से रोके लेकिन उन पोस्‍टर्स में प्रचारित कहानी बिहार और पूर्वांचल में रहने वाले हर अमीर, गरीब, नेता, अभिनेता, कलाकार, बैंक क्‍लर्क, स्‍कूल शिक्षक, गांव की लड़की, सुमो और मारुति गाड़ी में घूमने वाले ऊंची सोसाइटी के लोग… भोजपुरिया और बिहारी पहचान से ताल्‍लुक रखते हैं। शायद आप अपनी भाषा और पहचान से मुकर जाएं और मुंह बिचका के निकल जाएं, ठीक वैसे ही जैसे कचरे की गंध को सूंघ कर हम नाक बंद करके चल देते हैं, लेकिन वही कचरा जब संक्रमण का रूप लेता है, तब हम जागते हैं या हमेशा के लिए सो जाते हैं। बड़ी अजीब बात है कि इस कचरे के फैलने में आपका भी हाथ है, माने या न मानें। अगली बार जब आप इन भोजपुरी फिल्‍मों के पोस्टर्स को देखें तो थोड़ा बेशर्म होकर गाड़ी, स्कूटर, मोटरसाइकिल आदि को रोक लें (अगर आपके साथ कोई नाबालिग लड़का या लड़की हो तो ऐसा न करें) और एक नजर भर के देखें। आप सामान्यतः तीन चीजें देखेंगे…
1. एक अधनंगी लड़की, जिसने पता नहीं किस मजबूरी में अपने विदलन (स्तनों के बीच का भाग) दिखाये होंगे
2. खून से लथपथ हीरो और विलेन (सोचिए, फोटो खिंचवाते समय कितना खून पी जाते होंगे) और नकली बंदूक या चाक़ू… और हां बहुत सारे दूसरे लोग भी दिखेंगे… उन पर ज्यादा ध्यान न भी दें तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा। ये जो उच्चतम दर्जे की भोजपुरी फिल्‍में हैं, वो अस्सी के दशक की “सी ग्रेड” हिंदी फिल्‍मों जैसी हैं। हालांकि वो फिल्‍में भी तकनीकी स्तर पर आज की भोजपुरी फिल्‍मों से आगे थीं।
इन फिल्‍मों के नाम पर भी हम आएंगे। भोजपुरी सिनेमा का तिबारा जन्म (दो बार वह मर चुकी थी) हुआ, “ससुरा बड़ा पैसा वाला” नामक एक फिल्म से और उसके बाद भोजपुरी फिल्‍मों एक नया दौर शुरू हुआ। इसमें अमिताभ बच्चन के सचिव से लेकर, बिहार के कुछ नेता, दिल्ली के नौकरशाह से लेकर, Ex – Spotboy या देश के किसी भी कोने या भाषा-भाषी का इंसान हो, उसने इस धंधे में पैसा लगाया और कमाया। आज सबको पता है कि किस भाषा की फिल्‍मों को कामुकता का मसाला और अश्लीलता का तड़का लगा दें तो कुछ बेचारे गरीब, अनपढ़ लड़के, रिक्शा, ठेला वाले, स्‍कूल से भागे बच्चे और इस अफीम रूपी सिनेमा के नशे से ग्रसित लोग देखने आ ही जाएंगे। दस-दस रुपये के टिकट खरीद कर फिल्म देखने वाले ये लोग, जो बेचारे तमाम सुविधाओं से वंचित हैं और इतने शिक्षित भी नहीं हैं कि अपना भला बुरा सोच सकें, जानते ही नहीं कि इनके साथ क्या हो रहा है। इनकी सोचने-समझने की शक्ति को इतनी सूक्ष्मता से मारा जा रहा है कि ये जान भी नहीं पाएंगे कि ये असर सिनेमा का है या किसी और चीज का।
कुछ हाल ही में प्रदर्शित भोजपुरी फिल्‍मों के नाम हैं, “मार देब गोली केहू न बोली”, “जरा देब दुनिया तहरा प्यार में”, “देवरा बड़ा सतावेला”, “लहरीया लुटs ऐ राजाजी”, आदि। “रणभूमि” जैसी सशक्त मुद्दों पर बनी फिल्‍मों में भी बेहद अश्‍लील गाने हैं। हालांकि नाम इतनी बड़ी समस्या नहीं जितनी बड़ी समस्‍या इन फिल्‍मों में दिखायी जाने वाली विषय सामग्री। क्या मैं कुलीन और उच्च वर्ग के बिहारी की तरह बातें कर रहा हूं? नहीं, मैं सिर्फ बिहार का रहने वाला और भोजपुरी, मैथिली, मगही, अवधी से प्रेम करने वाला एक साधारण बिहारी हूं, जो भोजपुरी फिल्मों के द्वारा हो रहे भोजपुरिया समाज और बिहार की संरचना और उसकी संस्‍कृति पर हो रहे प्रहार को लेकर चिंतित है।
आखिर माजरा क्या है? सब पैसे का खेल है। यही सोच रहे होंगे आप। सही सोच रहे हैं आप।
एक भाषा सिर्फ भाषा नहीं होती, सिर्फ बात पहुंचाने का साधन नहीं होती है बल्कि एक समाज का अंग, उस सभ्यता की प्रतिनिधि होती है। उसके बोलने वालों की संस्कृति को अपने हर शब्द से बयान करती है। सिनेमा, या किसी भी रूप में जन-संचार, या वो टीवी, रेडियो, अखबार, इंटरनेट हो, अपने में बड़ा ही बलवान होता है। आज के सामाजिक परिवेश में उसका बहुत महत्त्व है और लोग उसे विश्‍वसनीय भी मानते हैं। सिनेमा इनमें से एक बहुत ही सार्थक और सशक्त संचार का माध्यम है। भारतीय समाज पर सिनेमा का असर कितना रहा है, ये तो सभी जानते हैं। भोजपुरी भाषा और इस माध्यम का मिलन हुआ सन 1962 में। बड़े उत्साह से हमारे पूर्वजों ने भोजपुरी सिनेमा की नींव रखी। बड़े-बड़े कलाकार, गायक वगैरह आये और इसका बीज बोया। लेकिन आज क्या हालत है? और इसका जिम्मेदार कौन है?
अगर आप बिहार के रहने वाले हैं, या भोजपुरी भाषी हैं और देश के किसी भी कोने में आप इंजीनियर, डाक्टर, वकील, बैंक अफसर, नौकरशाह, मंत्री, नेता, मुख्यमंत्री, राज्यसभा सदस्य, छात्र, घूसखोर किरानी, कालाबाजारू कारोबारी, समाज सेवक, दिल्लीवाला बनने के लिए आतुर हैं, अपने आपको बिहारी कहने से शर्माती हुई लड़की या घुट-घुट के जीने वाले कोई भी व्यक्ति हैं, तो मैं ये बता दूं की ये भोजपुरी फिल्‍में आप ही की कहानी बता रही हैं, और आप हैं कि कहते है की हम देखते नहीं, वो तो बहुत गंदी होती हैं। गंदी तो होती हैं, लेकिन क्यों? क्या इसका आप पर कोई असर होता है?
मेरे एक पहचान के व्यक्ति हैं। उन्होंने कहा कि कला पहले अपने बेडौल रूप में रहती है, फिर धीरे-धीरे बारीक और सुंदर होती है। मैं उनकी इस बात से सहमत हूं, लेकिन एक हद तक। सिर्फ ये कह कर कि सब ठीक हो जाएगा और भोजपुरी सिनेमा अभी परिवर्तन के चरण में है, सारी बहस को समाप्त नहीं किया जा सकता। आज का भोजपुरी सिनेमा, बिहार और भोजपुरिया समाज की क्या छवि बना रहा है, ये एक व्यक्तिपरक (subjective) बात हो सकती है लेकिन मैं इसे एक गंभीर समस्या मानता हूं। आज बिहार और पूर्वांचल के हिस्सों में मैथिली, मगही, अंगिका, बज्जिका और अवधी भाषाएं बोली जाती हैं लेकिन सिनेमा के माध्यम से भोजपुरी भाषा की फिल्‍में ही छवि बना रही हैं या बिगाड़ रही हैं। आज बिहार भोजपुरी सिनेमा का सबसे बड़ा बाजार है। आज भोजपुरी सिनेमा बेहद प्रतिगामी (regressive) है, और अपने घिसे-पिटे संगीत और गीत से सस्ता और हानिकारक मनोरंजन कर रहा है। और इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि आज की भोजपुरी फिल्मों ने अपने लिए हजारों दर्शक खड़े कर लिये हैं, जो इस नशे से बीमार हैं। क्या मजाल कि आज एक अच्छी सोच का निर्माता/निर्देशक भोजपुरी में एक साफ-सुथरी फिल्म बनाने की सोच सके। हालांकि कुछ फिल्‍मे बनी भी हैं।
कभी आपने सोचा है के ऐसे फिल्मी पोस्टर्स और टीवी पर ट्रेलर्स को देख रहा एक गैर बिहारी या भोजपुरिया, हमारे समाज के बारे में क्या छवि बनाता होगा?
पूरी दिल्ली, गुड़गांव और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र बिहार के लोगों से पटा पड़ा है। दिल्ली विश्वविद्यालय, जेएनयू, इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय और तमाम ऑफिसेस, कॉल सेंटर्स, कॉरपोरेट्स आदि जगहों पर बिहार के लोग भरे पड़े हैं। लेकिन क्या ये लोग भोजपुरी फिल्‍में देखते हैं? बिलकुल नहीं। दिल्ली या मुंबई में रह रहे बंगाली तो देखते हैं अपनी भाषा की फिल्‍में। दिल्ली में रहने वाला तमिल आदमी भी देखता है, जब उसकी भाषा की फिल्‍में सिनेमा घरों में लगती हैं। मराठी, कन्नड़, मलयाली, असमिया, उड़‍िया वगैरह सब अपनी भाषा की फिल्‍में देखते हैं, लेकिन बक्सर जिले में रहने वाला एक पढ़ा-लिखा भोजपुरी बोलने वाला इंसान भोजपुरी फिल्‍में नहीं देखता। आश्चर्य है न? क्‍योंकि भोजपुरी भाषा का इस्तेमाल तो अश्लीलता बेचने के लिए किया जा रहा है और अनपढ़-गरीब जनता को और भ्रष्ट बनाया जा रहा है। और उन बनाने वालों से पूछो, तो कहते हैं कि पब्लिक की डिमांड है तो हम बनाते हैं। पब्लिक की “डिमांड” तो बहुत कुछ होगी तो क्या सब करेंगे? नहीं न! आप youtube पर जाइए और एक क्लिक करते ही आपको भोजपुरी के “सुपर हिट” गाने मिलने शुरू हो जाएंगे। कुछ गाने इस प्रकार से हैं, “तनी धीरे धीरे डाला, सील बा… तनी हौले हौले डाला, दुखाता राजाजी…”, “लहंगा उठा देब रिमोट से..”, “सैय्यां लेके बहियां में मारेलन काचा कच कच कच…”, “काहे नाही आये सईयां, रतियां में बोलकर, बईठल रहनी पिछली कोठरिया में खोलकर…” खैर ये एक अंतहीन सूची है।
आखिर ये कौन लोग है?
ज्यादातर भोजपुरी बोलने वाले लोग हैं। कोई पटना से है, कोई बेतिया, मोतिहारी, मुजफ्फरपुर, रांची से है। अपने लोग हैं जो अपने जीवन का महत्त्व नहीं समझ रहे हैं, और संस्कृति का सामूहिक रूप से संहार कर रहे हैं। कल्लू नाम का एक 14 वर्षीय बालक, आज भोजपुरी का सबसे प्रसिद्ध गायक है। उसकी उपलब्धि ये है कि उसने भोजपुरी के कुछ सबसे अश्‍लील गाने गाये हैं। उसके परिवार वालों का कहना है कि कल्लू एक निहायत मासूम और अबोध बच्चा है। “लगा दी चोलिया के हुक राजाजी” और “सकेत होता राजाजी” उसकी गायकी के कुछ नायाब नमूने हैं। अधेड़ उम्र के लोग उसके गानों पर नाचते हुए दिख जाएंगे। इस धंधे में ज्यादातर बिहार के ही लोग हैं, जो पैसे के लिए अपनी संस्कृति, अपने लोगों और अपनी आत्मा को बेचते हैं।
आइए जरा भोजपुरी फिल्मों के इतिहास पर एक नजर डालें। विश्वनाथ शाहबादी ने 1962 में “गंगा मइया तोरे पियरी चढ़इबो” से शुरुआत की थी। इस वक्त तक दूसरे क्षेत्रीय भाषा की फिल्‍मों को आये हुए 30-40 साल हो गये थे और भोजपुरी नया था। लेकिन शुरुआत की फिल्‍मों में भिखारी ठाकुर जैसे लोग खुद नजर आये थे। महेंदर मिसिर के गानों का रस था, निर्गुण पर नृत्य होता था और पूरबी और बिरहा की तान थी। बिदेसिया, लोहा सिंह, लागी नाही छूटे रामा, जैसी कुछ बहुत ही सुंदर और सामाजिक फिल्‍में बनीं। लता मंगेशकर, आशा भोंसले, मन्ना डे जैसे गायक और चित्रगुप्त जी जैसे संगीतकार थे। वो था बीता हुआ कल।
आज तेलुगु, तमिल, मलयाली, मराठी इत्यादि भाषाओं की फिल्म राष्ट्रीय और अंतरराष्‍ट्रीय फिल्म समारोहों में जा रही है। ऑस्कर जैसे प्रतिष्ठित फिल्म समारोहों में भारत की लगभग सभी प्रमुख क्षेत्रीय भाषा की फिल्‍में जा चुकी हैं। मराठी सिनेमा के अंदर उमेश कुलकर्णी, केदार शिंदे, तेलुगु में शेखर कमुल्ला, तमिल में मणिरत्‍नम, आमिर सुलतान, मलयालम में अदूर गोपालकृष्णन, कन्नड़ में गिरीश कसारावल्ली, बांग्ला में रितुपर्णो घोष, अपर्णा सेन, गौतम घोष इत्यादि लोग हैं, जिन्होंने अपनी भाषा की फिल्मों को राष्‍ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठाया है, अपनी संस्‍कृति को और सुसज्जित किया है। मैं किसी भी भोजपुरी निर्देशक का नाम नहीं जानता। भोजपुरी वालों की तरह भोजपुरी रूपी अपनी मां का बीच चौराहे पर चीरहरण नहीं किया है। जब भी मैं भोजपुरी के किसी पोस्टर या ट्रेलर को देखता हूं तो ऐसा लगता है जैसे भोजपुरी रूपी मां अपने बच्चो से चीख चीख कर कह रही हो कि मेरा बलात्कार मत करो, मुझे थोड़ी इज्जत दो। लेकिन शायद कोई सुनने वाला नहीं है।
भोजपुरी फिल्मकारों को क्या हुआ? सच तो ये है कि भोजपुरी में कोई फिल्मकार ही नहीं है। मैं, बिहार के भोजपुर क्षेत्र से आता हूं। चंपारण से भी उतना ही गहरा रिश्ता है। लेकिन मैंने आजतक कोई भी भोजपुरी फिल्म सिनेमाघर में नहीं देखी है। मैं बाकी सारी भाषाओं की फिल्‍में सिनेमाघर में देखता हूं। ये हास्य से ज्यादा दुःख की बात है। कैसे इन फिल्मकारों ने मुझे और करोड़ों पढ़े-लिखे लोगों को भोजपुरी सिनेमा से अलग कर दिया और बिहार और भोजपुरी समाज के आभिजात्य वर्ग ने भी अपना पल्ला झाड़ लिया। कह देते हैं कि भी हम तो नहीं देखते भोजपुरी, हां घर में बात करते हैं जरूर भोजपुरी में। लेकिन मैं कहता हूं कि “अरे ऐसा बोलने वाले बेवकूफो, छवि तो तुम्हारी ही बन रही है दुनिया के सामने”। आधे बदन के कपड़े पहने वो लड़की कौन है, उस पोस्टर पर? ध्यान से देखो? वही भोजपुरी है। छाती ठोंक कर कहते हैं न आप, डॉ राजेंद्र प्रसाद भारत के पहले राष्ट्रपति थे, उनकी भाषा थी भोजपुरी! भिखारी ठाकुर का नाम तो सुना होगा, उनकी भाषा थी भोजपुरी। मुंशी प्रेमचंद, मंगल पांडे, वीर कुंवर सिंह, जयप्रकाश नारायण, बिस्मिल्लाह खान, शिव नारायण राम गुलाम की भाषा है भोजपुरी! ये हम सबकी मां है। अगली बार अपनी मां को देखिए और दीवार पर लगे उन पोस्टर्स को देखिए। पैसे के लिए तन या मन को बेचने को ही वेश्यावृत्ति कहते हैं। लेकिन…
शर्म उनको मगर नहीं आती!!!
(नितिन चंद्र। युवा फिल्‍मकार। पटना और पुणे से पठन-पाठन खत्‍म करने के बाद सिनेमा की नयी जमीन बनाने की कोशिश। चंपारण टॉकीज नाम से एक कंपनी की नींव रखी। पहली फिल्‍म बनायी देसवा। फिल्‍म की भाषा भोजपुरी है और कहा जा रहा है कि यह भोजपुरी सिनेमा के इतिहास का प्रस्‍थान बिंदु साबित होगी। उनसे nitinchandra25@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।
मोहल्ला लाइव  से  साभार  प्रकाशित 

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